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मुंशी प्रेमचंद ः गबन


42)

ठीक दस बजे जालपा और देवीदीन कचहरी पहुंच गए। दर्शकों की काफी भीड़ थी। ऊपर की गैलरी दर्शकों से भरी हुई थी। कितने ही आदमी बरामदों में और सामने के मैदान में खड़े थे। जालपा ऊपर गैलरी में जा बैठीब देवीदीन बरामदे में खडाहो गया।
इजलास पर जज साहब के एक तरफ अहलमद था और दूसरी तरफ पुलिस के कई कर्मचारी खड़े थे। सामने कठघरे के बाहर दोनों तरफ के वकील खड़े मुकदमा पेश होने का इंतज़ार कर रहे थे। मुलजिमों की संख्या पंद्रह से कम न थी। सब कठघरे के बग़ल में ज़मीन पर बैठे हुए थे। सभी के हाथों में हथकडियां थीं, पैरों में बेडियां। कोई लेटा था, कोई बैठा था, कोई आपस में बातें कर रहा था। दो पंजे लडा रहे थे। दो में किसी विषय पर बहस हो रही थी। सभी प्रसन्नचित्त
थे। घबराहट, निराशा या शोक का किसी के चेहरे पर चिन्ह भी न था।
ग्यारह बजते-बजते अभियोग की पेशी हुई। पहले जाब्ते की कुछ बातें हुई, फिर दो-एक पुलिस की शहादतें हुई। अंत में कोई तीन बजे रमानाथ गवाहों के कठघरे में लाया गया। दर्शकों में सनसनी-सी फैल गई। कोई तंबोली की दूकान से पान खाता हुआ भागा, किसी ने समाचार-पत्र को मरोड़कर जेब में रक्खा और सब इजलास के कमरे में जमा हो गए। जालपा भी संभलकर बारजे में खड़ी हो गई। वह चाहती थी कि एक बार रमा की आंखें उठ जातीं और वह उसे देख लेती, लेकिन रमा सिर झुकाए खडाथा, मानो वह इधर-उधर देखते डर रहा हो उसके चेहरे का रंग उडाहुआ था। कुछ सहमा हुआ, कुछ घबराया हुआ इस तरह खडाथा, मानो उसे किसी ने बांधा रक्खा है और भागने की कोई राह नहीं है। जालपा का कलेजा धक-धक कर रहा था, मानो उसके भाग्य का निर्णय हो रहा हो।
रमा का बयान शुरू हुआ। पहला ही वाक्य सुनकर जालपा सिहर उठी, दूसरे वाक्य ने उसकी त्योरियों पर बल डाल दिए, तीसरे वाक्य ने उसके चेहरे का रंग फीका कर दिया और चौथा वाक्य सुनते ही वह एक लंबी सांस खींचकर पीछे रखी हुई कुरसी पर टिक गई, मगर फिर दिल न माना। जंगले पर झुककर फिर उधर कान लगा दिए। वही पुलिस की सिखाई हुई शहादत थी जिसका आशय वह देवीदीन के मुंह से सुन चुकी थी। अदालत में सन्नाटा छाया हुआ था। जालपा ने कई बार खांसा कि शायद अब भी रमा की आंखें ऊपर उठ जाएं, लेकिन रमा का सिर और भी झुक गया। मालूम नहीं, उसने जालपा के खांसने की आवाज़ पहचान ली या आत्म-ग्लानि का भाव उदय हो गया। उसका स्वर भी कुछ धीमा हो गया।
एक महिला ने जो जालपा के साथ ही बैठी थी, नाक सिकोड़कर कहा, ' जी चाहता है, इस दुष्ट को गोली मार दें। ऐसे-ऐसे स्वार्थी भी इस देश में पड़े हैं जो नौकरी या थोड़े-से धन के लोभ में निरपराधों के गले पर छुरी उधरने से भी नहीं हिचकते! ' जालपा ने कोई जवाब न दिया।
एक दूसरी महिला ने जो आंखों पर ऐनक लगाए हुए थी, 'निराशा के भाव से कहा, ' इस अभागे देश का ईश्वर ही मालिक है। गवर्नरी तो लाला को कहीं नहीं मिल जाती! अधिक-से-अधिक कहीं क्लर्क हो जाएंगे। उसी के लिए अपनी आत्मा की हत्या कर रहे हैं। मालूम होता है, कोई मरभुखा, नीच आदमी है,पल्ले सिरे का कमीना और छिछोरा।'
तीसरी महिला ने ऐनक वाली देवी से मुस्कराकर पूछा, ' आदमी फैशनेबुल है और पढ़ा-लिखा भी मालूम होता है। भला, तुम इसे पा जाओ तो क्या करो?'
ऐनकबाज़ देवी ने उद्दंडता से कहा, 'नाक काट लूं! बस नकटा बनाकर छोड़ दूं।'
'और जानती हो, मैं क्या करूं?'
'नहीं! शायद गोली मार दोगी!'
'ना! गोली न मारूं। सरे बाज़ार खडा करके पांच सौ जूते लगवाऊं। चांद गंजी होजाय!'
'उस पर तुम्हें ज़रा भी दया नहीं आयगी?'
टयह कुछ कम दया है? उसकी पूरी सज़ा तो यह है कि किसी ऊंची पहाड़ी से ढकेल दिया जाय! अगर यह महाशय अमेरीका में होते, तो ज़िन्दा जला दिये जाते!'
एक वृद्धा ने इन युवतियों का तिरस्कार करके कहा, ' क्यों व्यर्थ में मुंह ख़राब करती हो? वह घृणा के योग्य नहीं, दया के योग्य है। देखती नहीं हो,उसका चेहरा कैसा पीला हो गया है, जैसे कोई उसका गला दबाए हुए हो अपनी मां या बहन को देख ले, तो जरूर रो पड़े। आदमी दिल का बुरा नहीं है। पुलिस ने धमकाकर उसे सीधा किया है। मालूम होता है, एक-एक शब्द उसके ह्रदय को चीर-चीरकर निकल रहा हो।'
ऐनक वाली महिला ने व्यंग किया, ' जब अपने पांव कांटा चुभता है, तब आह निकलती है? '
जालपा अब वहां न ठहर सकी। एक-एक बात चिंगारी की तरह उसके दिल पर गगोले डाले देती थी। ऐसा जी चाहता था कि इसी वक्त उठकर कह दे,' यह महाशय बिलकुल झूठ बोल रहे हैं, सरासर झूठ, और इसी वक्त इसका सबूत दे दे। वह इस आवेश को पूरे बल से दबाए हुए थी। उसका मन अपनी कायरता पर उसे धिक्कार रहा था। क्यों वह इसी वक्त सारा वृत्तांत नहीं कह सुनाती। पुलिस उसकी दुश्मन हो जायगी, हो जाय। कुछ तो अदालत को खयाल होगा। कौन जाने, इन ग़रीबों की जान बच जाय! जनता को तो मालूम हो जायगा कि यह झूठी शहादत है। उसके मुंह से एक बार आवाज़ निकलते-निकलते रह गई। परिणाम के भय ने उसकी ज़बान पकड़ ली। आख़िर उसने वहां से उठकर चले आने ही में कुशल समझी।
देवीदीन उसे उतरते देखकर बरामदे में चला आया और दया से सने हुए स्वर में बोला, ' क्या घर चलती हो, बहूजी?'
जालपा ने आंसुओं के वेग को रोककर कहा, 'हां, यहां अब नहीं बैठा जाता।'
हाते के बाहर निकलकर देवीदीन ने जालपा को सांत्वना देने के इरादे से कहा, ' पुलिस ने जिसे एक बार बूटी सुंघा दी, उस पर किसी दूसरी चीज़ का असर नहीं हो सकता।'
जालपा ने घृणा-भाव से कहा, 'यह सब कायरों के लिए है।'
कुछ दूर दोनों चुपचाप चलते रहे। सहसा जालपा ने कहा, 'क्यों दादा, अब और तो कहीं अपील न होगी? कैदियों का यहीं फैसला हो जायगा।।' देवीदीन इस प्रश्न का आशय समझ गया।
बोला, 'नहीं, हाईकोर्ट में अपील हो सकती है।'
फिर कुछ दूर तक दोनों चुपचाप चलते रहे। जालपा एक वृक्ष की छांह में खड़ी हो गई और बोली, 'दादा, मेरा जी चाहता है, आज जज साहब से मिलकर सारा हाल कह दूं। शुरू से जो कुछ हुआ, सब कह सुनाऊं। मैं सबूत दे दूंगी, तब तो मानेंगे?'
देवीदीन ने आंखें गाड़कर कहा,'जज साहब से!'
जालपा ने उसकी आंखों से आंखें मिलाकर कहा,'हां!'
देवीदीन ने दुविधा में पड़कर कहा, 'मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता, बहूजी! हाकिम का वास्ताब न जाने चित पड़े या पट।'
जालपा बोली, 'क्या पुलिस वालों से यह नहीं कह सकता कि तुम्हारा गवाह बनाया हुआ है?'
'कह तो सकता है।'
'तो आज मैं उससे मिलूं। मिल तो लेता है?'
'चलो, दरियार्ति करेंगे, लेकिन मामला जोखिम है।'
'क्या जोखिम है, बताओ।'
'भैया पर कहीं झूठी गवाही का इलजाम लगाकर सज़ा कर दे तो?'
'तो कुछ नहीं। जो जैसा करे, वैसा भोगे।'
देवीदीन ने जालपा की इस निर्ममता पर चकित होकर कहा, 'एक दूसरा खटका है। सबसे बडा डर उसी का है।'

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